मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

ग़ज़ल

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ग़ज़ल

जनतन्त्र का महल,    किसके लिए खड़ा किया
आदमी     के   सामने,    अर्थ   को    बड़ा     किया

काई   का    है   बुत बना,      और धुएँ का पैरहन
वक्त का गला  बदन,    चौक  पर   खड़ा        किया

आँखों  में  जम गई हया, हाथों  से गिर गया चलन
डर ने छलांग मार दी, खाई को कुछ  बड़ा किया

सरहदों को तोड़ कर ,    बेशर्म   घाव कर दिए
नाम देश का लिया,          आदमी लड़ा किया

सदियों ने आदमी का कद, कुछ कर दिया है कम
सुनते हैं शाम ढल रही, सूरज  ने दिल  कड़ा   किया

रविवार, 15 नवंबर 2009

GHAZAL


ग़ज़ल

पेड़ों से   अंकुर   फूटा तो    मैं       जनमा हूँ
मन का काला जल छूटा तो मैं जनमा हूँ

पत्थर चिनता रहा कहीं पर कभी कहीं पर
शिल्पकार ने छेनी पकड़ी मैं जनमा हूँ

जग का सारा दर्द मुझे   कुछ पता नहीं है
एक बिवाई को सहलाकर मैं जनमा हूँ

आकाशों से परे जहाँ कुछ गैबी-गैबी
चीर के धरती का सीना ही मैं जनमा हूँ

आज मेरी बेटी ने अपना ब्याह रचाया
उसके कल की आहट से ही मैं जनमा हूँ

कटा पेड़ या मरा कोई मैं मरा वहीं पर
कलकल हलचल सुनीं कहीं तो मैं जनमा हूँ

रविवार, 13 सितंबर 2009

गज़ल

जब भी तुमने किया गिला होगा
इक   समन्दर   वहीं     हिला  होगा

बात कुछ यूं भी वही और यूं भी
अपना ऐसा ही सिलसिला    होगा

फूल पत्थर में उग के लहराया
यार अपना यहीं      मिला होगा

बन्द घाटी में    शोर पंछी का
गुल कहीं दूर पर खिला होगा

दूर कुछ     संतरी      खड़े से दिखे
किसी लीडर का यह किला होगा