मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

ग़ज़ल

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ग़ज़ल

जनतन्त्र का महल,    किसके लिए खड़ा किया
आदमी     के   सामने,    अर्थ   को    बड़ा     किया

काई   का    है   बुत बना,      और धुएँ का पैरहन
वक्त का गला  बदन,    चौक  पर   खड़ा        किया

आँखों  में  जम गई हया, हाथों  से गिर गया चलन
डर ने छलांग मार दी, खाई को कुछ  बड़ा किया

सरहदों को तोड़ कर ,    बेशर्म   घाव कर दिए
नाम देश का लिया,          आदमी लड़ा किया

सदियों ने आदमी का कद, कुछ कर दिया है कम
सुनते हैं शाम ढल रही, सूरज  ने दिल  कड़ा   किया